कॉन्सपिरेसी की रोचक कथाओं को विज्ञान के ऊपर तरजीह देने वाले कौन लोग हैं ?

डॉक्टर स्कंद शुक्ला

क़िस्सा पुराना है। बेंजामिन फ्रैंकलिन के नाम से ढेरों लोग परिचित हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका को अस्तित्व में लाने में उनका योगदान अग्रगण्य रहा है। लेकिन सन् 1736 में उनके एक बेटे की मृत्यु चेचक(स्मॉलपॉक्स) से हो गयी। चार साल का बच्चा। कारण ? उस बच्चे को चेचक का टीका नहीं लगा था। इस घटना ने फ्रैंकलिन पर गहरा प्रभाव डाला और जीवन-भर वे इस कारण अवसाद में रहे। अपनी आत्मकथा में वे लिखते हैं :

“सन् 1736 में मैंने अपना एक बेटा खोया , चार साल का उस प्यारे बच्चे को चेचक ले गया। मैं देर तक पश्चात्ताप करता रहा। आज भी करता हूँ कि क्यों मैंने उसे इनॉक्युलम नहीं दिलवाया। मैं उन माँ-बाप से यह कह रहा हूँ , जो इससे आज भी परहेज़ करते हैं। वे समझें कि वे स्वयं को कभी माफ़ नहीं कर पाएँगे , अगर उनका अपना बच्चा इस ग़लती के बाद गुज़र जाएगा। मैं उनके सामने पश्चात्ताप करते पिता का उदाहरण हूँ और उन्हें मेरी नियति की जगह बेहतर विकल्प चुनना चाहिए।”

बेंजामिन फ्रैंकलिन का समय आज के समय से बहुत अलग था। तब टीकाकरण के पीछे विज्ञान के पुष्ट शोधों की फेहरिस्त नहीं थी। टीके भी नहीं थे , केवल चेचक ही अपवाद था। लेकिन आज भी अमेरिका में और दुनिया के अन्य देशों में टीका-सन्देहियों और टीका-विरोधियों की आबादी बढ़ती जा रही है। ये लोग ख़सरे के टीके का विरोध करते हैं , डीपीटी का भी। इन्हें हर दवा और हर वैक्सीन में कोई-न-कोई षड्यन्त्र नज़र आता है। इनका दिमाग़ विज्ञान की नहीं सुनता , ये कॉन्स्पिरेसियों से संचालित हैं।

कॉन्स्पिरेसियों पर भरोसा करने वालों पर हम हँस सकते हैं। हँसना आसान काम है। हँसने में तिरस्कार का भाव है , वह अवैज्ञानिक व्यक्ति को मूर्ख मानता है। लेकिन किसी को अवैज्ञानिक सिद्ध कर देने से उसमें हीन भावना वैसे ही नहीं लायी जा सकती , जैसे निर्देही को आप नंगा बता कर उसमें लज्जा-भाव नहीं पैदा कर सकते। जो शरीर-बोध को ही नहीं मानता , वह नग्नता को भी नहीं मानेगा। “नंगा-नंगा शेम-शेम” जैसी हीनभाव-प्रबोधी गतिविधियाँ उसे भला क्यों प्रभावित करने लगीं !

कॉन्सपिरेसी-प्रेमी और कॉन्सपिरेसी-जीवी से न घृणा करनी है और न उसके प्रति तुच्छता का भाव लाना है। घृणित और तुच्छ मानने से आप उस व्यक्ति के भीतर से उसका श्रेष्ठताबोध नहीं नष्ट कर सकते। कॉन्सपिरेसी-प्रेमी और कॉन्सपिरेसी-जीवी विज्ञान और वैज्ञानिकों को श्रेष्ठ मानता ही नहीं। उसके अनुसार दुनिया का हर वैज्ञानिक या तो अज्ञानी है अथवा बिक चुका है। उसके अनुसार विज्ञान के प्रवर्तक अपने निहितार्थों के कारण टीकों की पक्षधरता दिखा रहे हैं। उसके मन में यह बात है कि हर वैज्ञानिक हर समय पैसे के बारे में ही सोचता है , उसी से संचालित है। बस ! ऐसे में वह घोर अविश्वास के साथ अपने षड्यन्त्र-बोध से आँखें मींच कर चिपट जाता है।

“झूठ पंख लगाकर उड़ता है , सत्य पीछे लँगड़ाते हुए पहुँचता है “— जॉनेथन स्विफ़्ट कह गये हैं। जब तक मनुष्य यह जान पाये कि उसे ठग लिया गया है , देर हो चुकी होती है। झूठ तो फिर झूठ ठहरा , वह अपना काम कर गया ! सत्य को आने में देर हो गयी !

भारत के लोगों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि अमेरिका में 19-35 महीनों के 25 % बच्चों को ख़सरे का टीका नहीं लगवाया गया है। ( यह आँकड़ा सन् 2015 का है। ) लगातार लोगों के मन में टीकों के लिए अविश्वास बढ़ रहा है। उन्हें उन कच्ची ख़बरों पर पहले विश्वास होता है , जो टीकों के प्रतिकूल प्रभावों की बता करते हैं। अनुकूल प्रभावों ( या लाभों ) को वे सन्देह की नज़र से देखते हैं।

मान लीजिए , मुझे किसी टीके की बुराई करनी है। क्या मेरे लिए यह मुश्किल काम है ? बिलकुल नहीं। केवल कुछ ऊटपटाँग बातें चटोरी भाषा में एक-दो शोधों को अपने अनुसार मनमाने ढंग से समझकर लिख देनी हैं। लोग सहज ही मेरे कहे में आ जाएँगे। नेगेटिव बातों की पब्लिसिटी फैलाना बहुत आसान है। कुछ ही दिनों में मैं जनता का ‘वास्तविक मसीहा’ बनकर सामने आ जाऊँगा।

लेकिन अब अगर मुझे टीकों के पक्ष में बात करनी हो तो ? विज्ञान समझाना हो तब ? तब मुझे पढ़ना पड़ेगा। शोधों को बेहतर ढंग से खँगालना पड़ेगा। सच लिखने वाले को अपनी बात कहने में मेहनत अधिक लगेगी और झूठ-प्रेमियों की तुलना में कम लोग आकर्षित होंगे। लेकिन सच पर उन कुछ लोगों की नज़र रहेगी , जो मेरी ही तरह सच लिखते और पढ़ते हैं। वे भीड़ चाहे न हों , पर वे सत्यप्रेमी-सत्यशोधी हैं।

टीका-सन्देही के मनोविज्ञान की गहराई में उतरिए , बड़ी दिलचस्प बातें खुलेंगी। वह कहेगा कि चाँद पर मनुष्य कभी नहीं गया। वह मानेगा कि 9 / 11 अमेरिका की अपनी प्लानिंग थी। उसके अनुसार हिटलर सन् 1945 में नहीं मरा था , बड़े दिन जीवित रहा था। उसे भरोसा है कि दुनिया को आठ-दस शक्तिशाली चला रहे हैं और वे लगातार मीटिंगें किया करते हैं। राजकुमारी डायना को प्लानिंग के तहत मरवाया गया था। दरअसल टीका-सन्देही केवल टीका-सन्देही-भर नहीं है , वह व्यापक तौर पर षड्यन्त्र-विश्वासी भी है। वह किसी भी मेनस्ट्रीम मत को मानता ही नहीं। वह बड़े अविश्वास में जीते हुए अपनी सोच गढ़ा करता है। हर घटना में षड्यन्त्र सूँघता, प्रत्येक ईवेंट में उसका ऑल्टरनेट फ़ैक्ट पर भरोसा जमता जाता है।

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