कैंसर व एंटीऑक्सीडेंट : रिश्ता जो हम ठीक से समझते नहीं

डॉक्टर स्कंद शुक्ला

मैं एंटीऑक्सीडेंट खाना चाहता हूँ क्योंकि ये कैंसर से बचाते हैं।” “अपनी बात को सिद्ध करने से पहले यह समझाएँ कि ऑक्सीडेशन होता क्या है और किस तरह से यह कैंसरकारी है ?” “इस बाबत कई सन्देह हैं , जिनको विज्ञान की भाषा में स्पष्ट समझना ज़रूरी है।”

“जी , बिलकुल। ऑक्सीडेशन का साधारण अर्थ ऑक्सीजन से जुड़ना माना जाता है। लेकिन हर रासायनिक अभिक्रिया में ऑक्सीजन तो होती नहीं। इतने सारे रासायनिक तत्त्व हैं , इतनी सारी रासायनिक क्रियाएँ हैं। ऑक्सीजन कहीं क्रिया में हिस्सेदारी करती है और कहीं नहीं। तो इसलिए ऑक्सीडेशन की व्यापक परिभाषा है परमाणुओं के एलेक्ट्रॉनों को त्यागना।”
“तो क्या ऑक्सीडेशन में हमारे शरीर के परमाणु एलेक्ट्रॉन त्यागते हैं ?”

“जी। त्यागते हैं। इस प्रक्रिया में कई ऐसे तत्त्वों का निर्माण होता है , जो मुक्त यानी फ़्री रेडिकल कहलाते हैं। इस पूरी प्रक्रिया को ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस या ऑक्सीजनकारी तनाव कहा गया है।”

“ऑक्सीजन तनाव देती है ?”
“बिलकुल देती है। ऑक्सीजन हमें हर पल तनाव देकर मारने में लगी है। वह हमारे परमाणुओं से एलेक्ट्राॅन लूट रही है। वह लुटेरी भी है।” “और जो उसे जीवनदायिनी कहा गया ?” “वहाँ भी वह ऑक्सीडेशन कर रही है। दरअसल ऑक्सीजन को हमें ज़िन्दा रखने में कोई दिलचस्पी नहीं। उसे तो रासायनिक क्रियाओं में भाग लेना है। चाहे एक क्रिया में वह ग्लूकोज़ को तोड़ कर ऊर्जा दे और दूसरी में ऑक्सीजनीय तनाव देकर कैंसर पैदा करे। आदमी जीता हो तो जिए , मरता हो तो मरे। प्रकृति में मानवीय भाव और मूल्य हमने डाले हैं , उसमें स्वरोपित हैं नहीं वे।” “मुक्त रेडिकल यानी फ़्री रेडिकल में मुक्त क्या है ?” “मुक्त रेडिकल में कोई एलेक्ट्रॉन ऐसा है , जिसका जोड़ा नहीं है। वह अकेला है।”

“यानी ? जब परमाणुओं में एलेक्ट्रॉन जोड़ों में रहते हैं , तो वे शान्त रहते हैं और अभिक्रिया नहीं करते। लेकिन जब किसी रसायन या विकिरण के कारण उनके परमाणु या अणु एलेक्ट्रॉनों त्याग कर फ़्री रेडिकलों में बदल जाते हैं , तो वे हानिकारक हो जाते हैं।”

“ऐसे रसायन और विकिरण कहाँ हैं ?”
“हमारे चारों ओर। हवा में। पानी में। सूर्य के प्रकाश में। सब तरफ़ से हमें ऑक्सीडाइज़ करने की कोशिश हो रही है। आपने सेब का कटा फाँक देखा है ? या पनीर का कोई टुकड़ा ? या लोहे का कोई खण्ड ? उसे एक दिन-एक महीने के लिए बाहर रख दीजिए। क्या होगा ?””सेब भूरा पड़ते हुए सड़ जाएगा। पनीर भी सड़ जाएगा। लोहे पर ज़ंग लग जाएगी।”

“ये तीनों ही क्रियाएँ ऑक्सीडेशन हैं। आदमी पर लगातार सड़ने या ज़ंग लगने के ख़तरे से जूझता जीवन जीता है। यह जो बुढ़ापा दिखता है न आपको , इसमें काफ़ी भूमिका ऑक्सीडेशन की है। कविता की भाषा में बूढ़ा आदमी एक ऑक्सीडाइज़्ड जीवन है।””क्या सामान्य इंसान में भी ऑक्सीडेशन होता रहता है?”

“हर कोशिका में ऑक्सीडेशन नित्य चल रहा है। फ़्री रेडिकल जन्म ले रहे हैं। वे हमारे डीएनए , प्रोटीनों और वसाओं को हानि पहुँचा रहे हैं।” “तो हम बचते कैसे हैं ? कोई रास्ता नहीं ?” “हमारे पास अपने एंटीऑक्सीडेंट हैं कोशिकाओं में। वे हमें इन मुक्त रेडिकलों से बचाते हैं। इनकी मार से।” “कैसे ?”

“इन अभिक्रिया के लिए आकुल मुक्त रेडिकलों से ये स्वयं अभिक्रिया कर जाते हैं।” “कैसे ?””ये एंटीऑक्सीडेंट अपने पास से एलेक्ट्रॉन देकर मुक्त रेडिकलों को शान्त यानी निष्क्रिय कर देते हैं। इस तरह से फ़्री रेडिकलों का हमला और उन्हें शान्त किया जाना चलता रहता है।” “कैंसर के अलावा फ़्री रेडिकल और क्या कर सकते हैं ?”

“जैसा कि मैंने बताया बुढ़ापा। फिर तमाम क्षयी यानी डिजनरेटिव रोग। इन सब में फ़्री रेडिकलों की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है।” “तो भोजन में एंटीऑक्सीडेंट लेने से हम कैंसर से बच सकते हैं ? या नहीं ? और फिर बुढ़ापे से ? क्षयी रोगों से ?”

“अब आप विज्ञान के प्रमाण पर आएँ। मौजूदा समय में कोई ऐसा प्रमाण नहीं कि बाहर से लिये एंटीऑक्सीडेंट इन रोगों से मनुष्य को बचाते हैं। क्योंकि एंटीऑक्सीडेंट तो हमारे भीतर भी हैं। बाहर से अतिरिक्त लेने से कितना असर पड़ेगा यह अभी पुष्ट निर्णय तक नहीं पहुँचा।””तो सन्तरा खाने से,सलाद खाने से, ग्रीन टी पीने से कोई लाभ नहीं ?”

“मैंने यह नहीं कहा। मैंने लाभ-विशेष के सन्दर्भ में यह कहा कि हम उसे प्रयोगों और शोधों में सिद्ध नहीं कर सके हैं। इसलिए भोजन की स्वास्थवर्धक चीज़ों में सन्तुलन रखते हुए उन्हें खाएँ। फ्री रेडिकलों को उनसे रुकना होगा , तो रुक जाएँगे।”

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