एक डॉक्टर की नजर में महिला समानता का अर्थ

डॉक्टर प्रवीण झा

चिकित्सा-क्षेत्र में जुड़े रहने से एक आँकड़ा दशकों से स्पष्ट है कि इस सेक्टर में स्त्रियाँ लंबे समय से बराबरी पर रही है। मेरे मेडिकल कॉलेज छात्रों में ही महिलाओं का अनुपात 50 % था। अस्पताल-स्टाफ़ों तक यह बढ़ कर 75 % हो गया। यह मानने में कोई गुरेज नहीं कि स्त्रियों के बिना स्वास्थ्य-व्यवस्था पूरी तरह चरमरा जाएगी। जिन देशों में स्त्रियाँ समान आर्थिक अधिकार से कोसों दूर हैं, वहाँ भी स्वास्थ्य-सेक्टर में स्त्रियाँ बहुतायत में हैं। अब तो मैं स्कैंडिनैविया में हूँ, जहाँ यह प्रतिशत अस्सी से ऊपर पहुँच चुका है। बल्कि स्थिति यह हो गयी है कि संतुलन के लिए अब पुरुषों को भी वर्कफोर्स में लाने के प्रयास चल रहे हैं। प्रश्न यह है कि अगर एक कठिन वर्कफोर्स जिसमें परिवार-कार्य संतुलन बनाना कठिन है, नाइट और इमरजेंसी ड्यूटी होती है, वहाँ अगर स्त्रियाँ सुचारू रूप से सँभाल रही हैं; तो बाकी सेक्टर में क्यों नहीं? मसलन पुलिस-फोर्स में यह प्रतिशत बराबर क्यों नहीं?

नॉर्वे की लगभग पचास प्रतिशत पुलिस-फोर्स अब स्त्रियाँ ही हैं, और यह सिद्ध होता जा रहा है कि उनकी यहाँ उपयोगिता प्रायोगिक है। यह अब विश्व जानता है कि अपराधियों से व्यवहार और कारागार की स्थितियों में नॉर्वे अव्वल है। इसे मुमकिन करने में स्त्रियों का ही योगदान है। तकनीकी सेक्टर में भी यही हाल है। स्कैंडिनैविया की एक प्रसिद्ध सॉफ्टवेयर कंपनी के कार्यालय में जाना हुआ। वहाँ के टॉप मैनेजमेंट से लेकर हर दूसरी कर्मचारी स्त्री है, और वह कंपनी सबसे तेज प्रगति करने वाली कंपनियों में है। इसे अब उन्होंने एक मॉडल मान लिया है कि प्रबंधन के ऊँचे स्थानों पर यह संतुलन बनाया जाए। नॉर्वे की तो पिछले दो चुनावों से लगातार महिला प्रधानमंत्री ही हैं, तो यह मॉडल देश पर ही लागू है। लेकिन, यह सब मुमकिन कैसे हुआ? क्या यह कोई संवैधानिक निर्णय था? या यह विकास का स्वत: प्रतिफल था? अगर इसका संबंध देश के आर्थिक विकास से है तो अमरीका समान अधिकार में पचासवें स्थान पर क्यों है? और एक छोटा सा देश आइसलैंड पहले स्थान पर क्यों है?

इसकी पड़ताल के लिए मैं आइसलैंड भी गया। वहाँ की संस्कृति में कुछ विचित्र सी बातें देखी। यह कड़ाके की ठंड का समय था, आइसलैंड बर्फ से लदा था, और मैं देख रहा हूँ कि एक बच्ची को ट्रॉली में घर के बाहर लिटा रखा है। मुझे लगा कि ग़लती से रह गया होगा। लेकिन, वहाँ के लोगों ने बताया कि यहाँ की तो यही प्रकृति है। बच्चे को इसी माहौल में बड़ा होना है। अब वह लड़का हो या लड़की, ये ठंडी हवाएँ और तूफ़ान तो इसे बराबर ही झेलना है। यही प्रवृत्ति नॉर्वे में भी है। चाहे मूसलाधार बारिश हो रही हो या ओले पड़ रहे हो, स्कूल के बच्चों की रोज तीस से चालीस प्रतिशत कक्षाएँ (या खेल-कूद) बाहर ही होगी। वह फिसल कर गिरेगी, बीमार होगी, चोट लगेगी, लेकिन यह गतिविधि नहीं रोकी जाएगी। उसे पुन: बाहर भेज दिया जाएगा। स्त्रियाँ मजबूत होती जाती है। इसकी विकृत तुलना भारत के खेतों में मूसलाधार वर्षा के बीच दलदल में नंगे पैर धान रोपती स्त्रियों से भी की जा सकती है। लेकिन भारतीय मध्य-वर्ग भले ‘चक दे’ और ‘मैरी कॉम’ जैसी फ़िल्में देख कर उत्साहित हो, बेटियों को मुक्केबाज़ी में भेजने से डरता है। खैर, मध्य-वर्ग तो बेटों को भी अमूमन नहीं भेजता, लेकिन फिर भी शारीरिक बनावट में प्राकृतिक भेद के अतिरिक्त भी एक सामाजिक भेद स्पष्ट दिखता है। मध्य-वर्ग की स्त्रियाँ अक्सर कोमलांगी ही होती हैं, भले उनका स्टैमिना पुरुषों से रत्ती भर कम नहीं होता।

दूसरा अंतर है मानसिकता का। यह विवादित बिंदु है, लेकिन मैं फिर भी रखता हूँ। दुनिया के कई देशों में ‘लेडीज़ फर्स्ट’ पद्धति है। स्त्रियों के लिए अपनी सीट छोड़ देना, या लिफ़्ट से निकलते हुए महिलाओं को पहले निकलने देना सामान्य शिष्टाचार है। लेकिन, यह स्कैंडिनैविया में सिरे से गायब है। अगर आप कभी यहाँ घूमने आएँ, तो इस बात का जरूर ध्यान रखें। आपने अगर बस या ट्रेन में उनको अपनी सीट ऑफर कर दी, वे बुरा मान जाएँगी। वह घंटे भर खड़ी रह जाएँगी, लेकिन आपकी दी हुई सीट नहीं लेगी। किसी बस या ट्रेन में मात्र अपंगों के लिए ही आरक्षित सीट होगी, महिला के लिए नहीं। बराबरी का एक सबक यह भी है कि हम प्राथमिकताओं को धीरे-धीरे खत्म करें। लेडीज़ आर इक्वल। फर्स्ट या लास्ट नहीं।

एक समस्या जिसकी चर्चा मैंने पहले की है, और स्कैंडिनैविया भी जूझ रही है, वह है आर्थिक बराबरी का। उन्नत देशों में भी पुरुषों का औसत वेतन स्त्रियों से अधिक है। आइसलैंड ने इसमें पहली मंजिल पायी है कि अब वहाँ महिलाओं को संवैधानिक रूप से समान वेतन मिलने लगा है। नॉर्वे की पुरुष फुटबॉल टीम भी इसलिए हड़ताल पर चली गयी थी क्योंकि महिला फुटबॉल खिलाड़ियों का मानदेय कम था। अब यह बराबर कर दिया गया था। यह ग़ौर करने वाली बात है कि यह कदम पुरुषों को भी उठाना होगा कि किसी महिला-कर्मी का वेतन बस इसलिए कम न हो क्योंकि वह महिला है। भारत की किसान महिलाओं के आय-गणना की तो अलग ही कहानी है। वे भले दिन भर खेती-मजदूरी में बिता दें, उन्हें कृषि कर्मियों में गिना ही नहीं जाता। यह लड़ाई उन स्त्रियों ने सौ साल पहले जीत ली, जो किसान बन कर गिरमिटिया देश (वेस्ट-इंडीज, फिजी आदि) ले जायी गयी थी। उनको वेतन भी मिलता और उनकी अपनी स्वतंत्रता भी थी।

किसी भी स्थिति में आर्थिक उन्नति और स्वतंत्रता ही नारी को समानाधिकार तक ले जा सकती है। और ऐसा करने से देश की क्षमता में कमी नहीं आएगी, बल्कि वह एक खुशहाल देश बनता जाएगा। दुनिया के सबसे खुशहाल देशों की सूची देखी जाए, तो यह बात सिद्ध होती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

kuwin

iplwin

my 11 circle

betway

jeetbuzz

satta king 786

betvisa

winbuzz

dafabet

rummy nabob 777

rummy deity

yono rummy

shbet

kubet

betvisa

winbuzz

six6s

babu88

marvelbet

krikya

winbuzz

daman game

mostplay login

4rabet login

leonbet login

pin up aviator

mostbet login

rummy wealth

Fastwin App

×