कोरोना: आखिर इतना लंबा समय क्यों लगेगा विषाणु के खिलाफ़ टीका बनाने में?

जब एक मित्र से वर्तमान सार्स-सीओवी-2 विषाणु के खिलाफ़ टीके निर्माण की सम्भावित अवधि एक-से-डेढ़ साल बतायी, तब वे चौंक उठे। इतना लम्बा समय? क्यों?

मित्र का इसमें दोष नहीं। हममें से ढेरों लोग जिन प्राणरक्षक दवाओं का प्रयोग नित्य करते आ रहे हैं, नहीं जानते कि इन औषधियों के विकास में संसार के न जाने कितने वैज्ञानिकों ने रात-दिन अथक श्रम किया है। हममें से अधिकांश लोग (डॉक्टर और रोगी दोनों) विज्ञान के उपभोक्ता हैं, विज्ञानजीवी नहीं। इसलिए हमें विज्ञान की हर गतिविधि सुस्त और धीमी जान पड़े, यह स्वाभाविक ही है।

वर्तमान कोरोना-विषाणु सार्स-सीओवी 2 एक आरएनए-विषाणु है, जिसका पूरा जेनेटिक सीक्वेंस चीनी वैज्ञानिक दुनिया के साथ साझा कर चुके हैं। यह काम इसी जनवरी में हुआ। इसी समय चीन के बाहर मेलबर्न , ऑस्ट्रेलिया के डोहर्टी संस्थान में पहली बार इस विषाणु को प्रयोगशाला में उगाया गया। (ध्यान रहे कि किसी भी कीटाणु: जीवाणु-विषाणु-फफूँद को प्रयोगशाला में उगाना जिसे कल्चर कहते हैं , उसे समझने और उसके खिलाफ़ टीका विकसित करने के बहुत आवश्यक है।) इसके बाद दुनिया-भर की उन्नत प्रयोगशालाओं में इस विषाणु के खिलाफ़ टीका बनाने की कोशिशें तेज़ हो गयीं।

फिर वैज्ञानिकों ने इस विषाणु की प्रकृति और गुणों को समझना शुरू तेज़ किया। ध्यान रहे कि आम तौर पर किसी टीके के निर्माण में दो-से-पाँच वर्षों का समय लगता ही है। पिछले टीकों के विकास-क्रम को पढ़कर इसे जाना जा सकता है। टीका विकसित करना किसी एक देश या किसी एक प्रयोगशाला का काम नहीं। इसके लिए विश्वभर के विशेषज्ञों को जुटना पड़ता है , मेहनत करनी पड़ती है। इस मेहनतकश काम में विषाणु से किसी अन्य जानवर को संक्रमित करना पड़ता है : यह जानवर इस विषाणु का एनिमल-मॉडल कहलाता है।

जिन टीकों के विकास पर काम किया जाता है, सबसे पहले उनकी सुरक्षा आँकी जाती है। किसी भी नयी दवा का सुरक्षित होना असरदार होने से पहले ज़रूरी है। लोगों को ऐसी दवा नहीं दी जा सकती, जिसके बहुत से प्रतिकूल प्रभाव हों। फिर यह देखना होता है कि सम्भावित टीका/ टीके मनुष्य के प्रतिरक्षा-तन्त्र को सही तरीक़े से चैलेन्ज करें। एनिमल-मॉडल में इस दौरान टीकों के अनेक प्रयोग किये जाते हैं। यह टीकों की प्रीक्लीनिकल टेस्टिंग का चरण है।

फिर जो टीके सुरक्षित और सफल पाये जाते हैं, उन्हें लेकर ह्यूमन ट्रायल किये जाते हैं। जब कोई टीका/टीके सुरक्षित व सफल पाये जाते हैं, तब उन्हें लिए नियमन के लिए वैश्विक और स्थानीय सरकारों से संस्तुति लेनी पड़ती है। फिर यह भी देखना पड़ता है कि विकसित किया गया टीका किफ़ायती हो ताकि उससे अधिसंख्य लोग लाभान्वित हो सकें।

टीकों के विकास के लिए विषाणु का ढेर सारा कल्चर आवश्यक होता है। सही एनिमल-मॉडल का चुनाव भी महत्त्वपूर्ण होता है। किसी भी जानवर का इस्तेमाल टीके के विकास के लिए यों ही नहीं किया जा सकता। अच्छी बात यह है कि वर्तमान कोरोना-विषाणु का आनुवंशिक सामग्री 80-90 % पिछले सार्स विषाणु से मिलती जुलती है , जिसपर वैज्ञानिक शोध करते रहे हैं। सार्स का जन्तु -मॉडल फेरेट नामक जीव है , उसका भी प्रयोगशालाओं में इस्तेमाल होता रहा है।

अब इतने सब के बाद यह भी समस्या है कि वर्तमान कोरोना-विषाणु कहीं म्यूटेट कर गया तब? यह पहले से ही हम-मनुष्यों में प्रचलित विषाणु नहीं है। चमगादड़-से किसी अन्य जीव (शायद पैंगोलिन) से होता हुआ यह मनुष्यों में आया है। पहले यह भी बात थी कि इसका मनुष्य-से-मनुष्य में प्रसार नहीं होता पाया गया था। लेकिन फिर बाद में यह मनुष्य-से-मनुष्य में फैलने लगा। अगर यह आगे और बदलने लगा और बदलता गया तब ? दुनिया के अलग-अलग देशों की जनसंख्या भिन्न है , जलवायु भी। वहाँ रहने वाले लोगों की आनुवंशिकी भी अलग-अलग है। पिछले दूसरे कोरोना-विषाणुओं का संक्रमण भी इस नये विषाणु के प्रति लोगों के शरीर का प्रतिरोध तय कर सकता है। ऐसे में यह भी ज़रूरी नहीं कि समूची दुनिया में फ़ैल चुका यह विषाणु अलग-अलग स्ट्रेनों में विकसित हो सकता है। (दो स्ट्रेनों में बँट चुका ही है।)

नित्य बदल रहे पशुओं से मानव में आये इस नवीन विषाणु के खिलाफ़ टीका बनाना सरल काम नहीं है , कदाचित् आप समझ रहे होंगे। हमारे पास पिछले कोरोना-विषाणुओं के सबक हैं , लेकिन वर्तमान नयी चुनौती से पुराने सबकों के सहारे पूरी तरह नहीं लड़ा जा सकता। साल-से-डेढ़ साल में वैक्सीन-निर्माण का दावा विलम्बित नहीं है , बहुत शीघ्र है। यह शीघ्रता भी बहुत हद तक इसलिए सम्भव हो पायी है , क्योंकि हम ( पिछले गम्भीर कोरोना-संक्रमणों ) सार्स व मर्स को काफ़ी हद तक जानते हैं।

(लेखक लखनऊ स्थित डॉक्टर हैं और मेडिकल विषयों पर आम लोगों की बोलचाल में लिखने वाले लोकप्रिय लेखक हैं.)

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