कोविड 19-संक्रमण: कैसे फैलता है ये विषाणु?

आज-कल ढेरों लोग कोविड-19 और उसके कारण सार्स-सीओवी 2 को लेकर दुविधा की स्थिति से गुज़र रहे हैं। चारों ओर से तरह-तरह की ख़बरें आ रही हैं,  कुछ भ्रमकारी, कुछ भयकारी, कई आशाकारी और आश्वस्तिकारी भी। किन्तु इतनी विविधता-भरी बातों को देखकर एक प्रश्न क़रीबी मित्र के मन में उभरा कि संसार में जानकारियाँ इतना भटकाती-भटकाती हुई क्यों विचरती हैं। जितना ज्ञान मिलता है, उतना व्यक्ति आश्वस्त नहीं, असहज क्यों हुआ जाता है?

इसका कारण भारतीय समाज में फैली विज्ञान-शिक्षा-सम्बन्धी निरक्षरता और शिक्षा-न्यूनता है। ढेरों लोग इस वैश्विक आपदा से पहले नियमित तौर पर न विज्ञान पढ़ते थे और उसमें रुचि लेते थे। हमारा समाज आज भी अतिशय भावुक , कला व कथाजीवी है। वह चमत्कारों की त्वरित गति में यक़ीन करता है : उसके पास देवों-असुरों की प्राचीन कथाओं की लम्बी सरस-समृद्ध परम्परा विद्यमान् है। जो लोग इन कथाओं से कट गये हैं, वे भी कथाजीविता से नहीं कटे। वे आज विज्ञान से हॉलीवुडीय फ़िल्मों द्वारा जुड़े हुए हैं। ऐसे में व्यावहारिक तौर पर जब उनका सामना किसी कोविड-19 सरीखी महामारी से होता है, तब वे मन में अनेक विचारों से साक्षात्कार करते हैं : 1 ) यह रोग किसी दण्ड से आरम्भ हुआ है और किसी चमत्कार से समाप्त होगा। 2 ) इस महामारी के लिए कोई एक देश-जाति-जनसंख्या उत्तरदायी है। 3 ) न जाने वैज्ञानिकों को इलाज बनाने में टीका खोजने में इतना समय क्यों लग रहा है ? 4 ) इस बीमारी के फैलाव में ज़रूर कोई राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय षड्यन्त्र है।

दण्ड का विधान जितना जादुई लगता है, होता नहीं। प्रकृति का अन्धदोहन करने पर दण्ड मिलना स्वाभाविक है और मिलेगा भी। किन्तु चमत्कारों-जादुओं-षड्यन्त्रों-तिलस्मों-हॉलवुडीय फ़िल्मों से क्या ग्रहण करना है और क्या नहीं , यह समझ विकसित करनी बेहद ज़रूरी है। फिर यह भी आवश्यक है कि जो ग्रहण किया गया है , वह अभिधा में लिया गया है या लक्षणा में। सीख लिटरल है या मेटाफॉरिकल ? और सबसे बड़ा भटकाव तब शुरू होता है, जब चमत्कारप्रिय लोग इन सीखों को मेटाफॉरिकल की जगह लिटरल लेने लगते हैं।

कल मित्र से कोविड 19 के सम्बन्ध में एक प्रश्न रख दिया : क्या यह विषाणु मल से फैलता है? क्या संक्रमित व्यक्ति के मल से दूषित भोजन व जल के सेवन से कोई स्वस्थ व्यक्ति संक्रमित हो सकता है? उन्होंने इस बाबत कुछ खबरें इंटरनेट पर देखी थीं, इसलिए वे इनका सत्यापन या खण्डन चाहते थे। तब मुझे उन्हें इस विषय में थोड़ी विस्तृत जानकारी देनी पड़ी, उतनी जितनी दे सकना मेरे वश में था और जितनी मैं जानता था।

सार्स-सीओवी 2 के नाम में ही ‘रेस्पिरेटरी’ विशेषण लगा हुआ है : यानी यह विषाणु हवा में मौजूद ड्रॉप्लेट (छोटी बूँदों) व इन ड्रॉप्लेटों के वस्तुओं पर बैठ जाने के बाद उन्होंने छूने से फैल सकता है। कोविड 19 के लक्षण भी मुख्य रूप से श्वसन-तन्त्र के सम्बन्धित ही होते हैं। किन्तु पिछले कुछ समय में की गयी अनेक केस-स्टडी में पेट-सम्बन्धी लक्षण भी पाये हैं और मल के नमूनों में भी विषाणु के आरएनए और / अथवा पूरे विषाणुओं की पुष्टि हुई है।

सार्स-सीओवी 2 का मनुष्य के पाचन-तन्त्र से कैसा और क्या दुस्सम्बन्ध बन रहा है , यह अभी हम जानने में लगे हैं। पूरी तरह जानने में समय लगेगा। इसकी आशंका है कि सार्स-सीओवी 2 से संक्रमित लक्षणहीन लोग (बच्चे और वयस्क) मल में विषाणु छोड़ रहे हों। इनमें से अनेक ऐसे भी हैं, जिनके नाक और गले से लिये गये आरटीपीसीआर-जाँच के नमूने विषाणु के लिए नेगेटिव हो चुके हों। यानी नाक व गले में विषाणु न मिले, किन्तु मल में फिर भी पाया जाता रहे।

मित्र पूछ रहे हैं कि श्वसन-तन्त्र को छोड़ देने के बाद भी सार्स सीओवी 2 विषाणु का पाचन-तन्त्र से (मल के साथ) निकलते रहने से हमें क्या शिक्षा ग्रहण करनी है? क्या यह ख़तरे की बात है?  मैं उनसे कहता हूँ कि स्वच्छता को हर तरह से जीवन में उतारिए, जब तक विज्ञान सीखने में लगा हुआ है। हाथों को अच्छी तरह धोना है, भोजन की सफ़ाई का पूरा ध्यान रखना है। रोग से लड़ने के लिए अस्त्र भय नहीं है, जागरूकता है।

मित्र विज्ञान की धीमी गति से चिन्तित हैं। मैं उन्हें समझाता हूँ कि जीवन जादू का शो नहीं है, न हॉलीवुड की तीन घण्टे की साइंस-फ़िक्शन फ़िल्म। यथार्थ में अनेक संघर्षों के बाद ही सफलता हाथ लगती है, तुरन्त नहीं।

सत्य ही सबसे बड़ी ख़ूबसूरती यही है कि वह अनाकर्षक है। किन्तु ढेरों लोगों को इसी अनाकर्षण में कोई रुचि नहीं मिलती। यही कारण है कि वे नियमित विज्ञान के यथार्थ नहीं पढ़ते, विज्ञान को क़िस्सों-कहानियों-फ़िल्मों से समझकर धारणाएँ बना लेते हैं।

(लेखक लखनऊ स्थित डॉक्टर हैं और मेडिकल विषयों पर आम लोगों की बोलचाल में लिखने वाले लोकप्रिय लेखक हैं.)

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